March 8, 2016

एक चुप..सौ सुख

जब हर कुत्ता बिल्ला भोंक रहा था
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब हर कोई सहिष्णुता असहिष्णुता पे अपने ब्यान ठोक रहा था
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब हर रोज़ बदलते मुद्दों पे हो रही थी बहस-बसाई, मार-कुटाई(अदालत में)
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब बन रहे थे गुट, और मांगी जा रही थी मेरी राय
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब फतवे किये जा रहे थे जारी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब किसी की जुबान काटने की थी तैयारी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब देशद्रोही.देशप्रेमी,देशभक्त,देशवासी को लेके छिड़ा विवाद
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा


जब सफ़ेद को बताया काला और काले को सफ़ेद
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा


पर अब जब पानी सर के उपर से गुज़र रहा है
तब भी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा

क्योंकी है मुझे मालूम है कि बोलूँगा अगर
तो करवा दिया जाऊँगा चुप

पर जैसे 'शहरयार' का दर्द था कि 'हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यों हैं
वैसे ही मेरा ज्वलंत सवाल था कि 'हर बोलने का अंजाम चुप क्यों है
और एक दिन
मैं अपने सवाल से जूझता हुआ जोश में भर के चिल्ला उठा
इन्कलाब जिंदाबाद...............

बस........
तब से मेरी जुबान पे लगी है बोली
कि अगर ये जुबां बोली तो चला देना गोली
कि बहुत मनाई रंगों से होली
इस बार मनाएंगे इस देशद्रोही की जुबां के खून से होली

अच्छा..अब ये ऊपरलिखित कविता-नुमा कुछ तो हो गया ना?? 
but seriously यार
मुझे क्यूँ लगता है डर कि
बोलूँगा अगर मैं
तो करवा दिया जाऊँगा चुप
और मेरी जुबां पे भी होगा
कुछ लाख का न सही
कुछ हज़ार का इनाम
या कुछ सौ का
या कुछ...