October 23, 2016

मध्यमवर्ग..

मध्यमवर्ग हावी है....
निराशा अवश्यम्भावी है !!! 


नोट- कृपया इन 2 पंक्तियों को पढ़कर आशावादी बनने की मुफ्त सलाह ना दें !!

July 29, 2016

ज़िद्दी परिंदा

बढ़ता पेट
घटता रेट
ज़ालिम सेठ

नींद बेवफ़ा
सपने सफा
उम्मीद रफा-दफा


हाथ में कंपन
पैर में झनझन
दिमाग में सनसन

पर

सोच है ज़िन्दा
ज़िद्दी परिंदा
बेपरवाह बाशिंदा
 
उड़ चला

आसमां
को
करने शर्मिंदा

July 28, 2016

कविता मेरी

दिल में जन्मी
बाज़ार में दम तोड़ गई
कविता मेरी

तू

किस्सा था
कहानी थी
याद नहीं

बचपन था
जवानी थी
याद नही


याद है
बस इतना

तू पास नहीं
तेरे आने की कोई
आस नहीं

July 27, 2016

फ़ितरत

ऑटो में बैठा तो
पैदल चलने वालों को हिकारत से देखा
कार में बैठ के ऑटो वालों पे गुस्सा आया
पैदल चला तो कार वाले को गाली दी

शुक्र है सड़कों पे जहाज़ नहीं चलते
वर्ना क़त्ल कर देता किसी का
जहाज़ में बैठ कर

July 11, 2016

काश......

कहीं घुमते-फिरते दिख जाता है कोई नया भूखंड
या कोई नया परिदृश्य या स्थान
तो लगता है ऐसे
कि
पा लिया सारा जहां
जीत ली सारी दुनिया

हालाँकि उन सभी भूखंडों परिदृश्यों-स्थानों पर
पड़ चुके होते हैं किसी के पाँव
पड़ चुकी होती है किसी की नज़र

और मैं उन जगहों पर चालाकी से अपने अकेले को
तस्वीर में कैद करके होता हूँ खुश
जैसे मैं ही हूँ 'पहला'
वहाँ कदम रखने वाला
जैसे मेरी नज़र ने ही देखा है वो नज़ारा सबसे 'पहले'

सोचता हूँ कि वास्कोडिगामा, कोलंबस
या उन्ही की तरह के कई दुर्लभ प्राणियों
को लगा होगा कैसा
जब सच में उन्ही के
कदम होंगे 'पहले'
किसी वर्जिन भूखंड को छूते हुए
उन्ही की नज़र होगी 'पहली'
किसी परिदृश्य का घूंघट उतारती हुई
उन्ही ने सूंघी होगी वहाँ की मिट्टी 'पहली' बार

उफ्फ... क्या फीलिंग होगी वो
लाख महसूस के भी महसूस नहीं सकता

काश..इस जनम में देख-छू-महसूस पाऊं
एक टुकड़ा इस जहां का
जहां ना पड़ी हो किसी की नज़र
ना छुएं हों कोई पाँव

काश...मैं भी वास्कोडिगामा हो जाऊं 
एक नितांत छोटे से भूखंड का

फिर भले ही वो हो मेरी कब्र
जहां का मैं ही होऊं 'पहला' बाशिंदा
काश....

March 8, 2016

एक चुप..सौ सुख

जब हर कुत्ता बिल्ला भोंक रहा था
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब हर कोई सहिष्णुता असहिष्णुता पे अपने ब्यान ठोक रहा था
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब हर रोज़ बदलते मुद्दों पे हो रही थी बहस-बसाई, मार-कुटाई(अदालत में)
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब बन रहे थे गुट, और मांगी जा रही थी मेरी राय
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब फतवे किये जा रहे थे जारी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब किसी की जुबान काटने की थी तैयारी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा
जब देशद्रोही.देशप्रेमी,देशभक्त,देशवासी को लेके छिड़ा विवाद
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा


जब सफ़ेद को बताया काला और काले को सफ़ेद
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा


पर अब जब पानी सर के उपर से गुज़र रहा है
तब भी
मैंने चुप रह जाना बेहतर समझा

क्योंकी है मुझे मालूम है कि बोलूँगा अगर
तो करवा दिया जाऊँगा चुप

पर जैसे 'शहरयार' का दर्द था कि 'हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यों हैं
वैसे ही मेरा ज्वलंत सवाल था कि 'हर बोलने का अंजाम चुप क्यों है
और एक दिन
मैं अपने सवाल से जूझता हुआ जोश में भर के चिल्ला उठा
इन्कलाब जिंदाबाद...............

बस........
तब से मेरी जुबान पे लगी है बोली
कि अगर ये जुबां बोली तो चला देना गोली
कि बहुत मनाई रंगों से होली
इस बार मनाएंगे इस देशद्रोही की जुबां के खून से होली

अच्छा..अब ये ऊपरलिखित कविता-नुमा कुछ तो हो गया ना?? 
but seriously यार
मुझे क्यूँ लगता है डर कि
बोलूँगा अगर मैं
तो करवा दिया जाऊँगा चुप
और मेरी जुबां पे भी होगा
कुछ लाख का न सही
कुछ हज़ार का इनाम
या कुछ सौ का
या कुछ...

January 3, 2016

जब प्रेमिका पुकारे....'भाई साब'


जैसे बरसों बाद आइना देखो तो खुद को पहचानना होता है मुश्किल !!
वैसे ही कुछ साल बीत जाने के बाद अपनी लिखी कविताएं भी लगती हैं अपरिचित !!!

जैसे आइना पूछता है सवाल कि कहाँ थे इतने दिन !!
वैसे ही कविताएं कहती हैं कि आप कौन भाईसाब??

भले ही आइना ना देखो बरसों
पर कविता को मुंह ना दिखाना
नहीं है अच्छा

प्रेमिका जैसी होती है कविता
ब्रेक-अप हो जाए तो
ना दिमाग में आती है ना दिल में

फिर पुरानी कवितायों को पढ़ के ही दिल बहलाना पड़ता है
प्रेमिका के लिखे पुराने खतों की तरह !!


काफी समय बाद अपने ब्लॉग पर अपनी कविताएं पढने के बाद !!!