September 25, 2015

उम्र चालीसा

ख़तरनाक पड़ाव है उम्र चालीस
ज़्यादा मांगती है
कम देती है

ना झपटने की ताक़त होती है
ना मांगने की हिम्मत होती है

बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है
बहुत शोर मचाना पड़ता है
मन को घंटों मनाना पड़ता है
दिमाग को दाम दंड साम भेद से चुप कराना पड़ता है

कुछ बेवजह-सी गोलियां अलमारी में जगह बना लेती हैं
बची-खुची ईगो को ज़रूरत खा लेती है

बीते हुए दिन सपना लगते हैं
चल रहे दिन पहेली
आने वाले दिनों का भरोसा नहीं होता

अब या तो साली ये अवस्था बदले या साला मैं बदल जाऊं।

September 18, 2015

टीचर फटीचर (पार्ट-1)

ये सब मैं टीचर डे पर लिखना चाहता था, जब सारा फेसबुक टीचर नाम के एक प्राणी और एक उपाधि का महिमामंडन करने में लगा हुआ था। जो उपाधि हमारे समय में (मैं आज 40 का हूँ) ग्रेजुएशन या उस से भी कम पढ़ाई में मिल जाया करती थी और बिना किसी विशेष प्रतिभा के एक तुच्छ-सा प्राणी टीचर बन जाया करता था और हम बच्चों की ज़िंदगी नरक बनाने में जुट जाता था (ये स्थिति अब बदल गई है...ऐसा लगता तो नहीं)। 

मैं हरियाणा के एक छोटे कस्बे और एक गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ा हूँ, दसवीं तक। जहां के टीचर जाति के आधार पर गुट बनाकर अपना जीवन-यापन करते थे। कोई बनिया, कोई पंजाबी, कोई जाट तो कोई अनुसूचित जन-जाति की पहचान से ही जाना जाता था, जैसे कोई टीचर हिंदी या साइंस टीचर नहीं... बनिया, पंजाबी या जाट टीचर होता था। 

ये लगभग सभी तथाकथित टीचर अपना खाली समय (जोकि भरपूर होता था) चुगली, गुटबाज़ी और इसी तरह की अन्य गैरज़रूरी क्रियाओं में व्यतीत करते थे। इनका पसंदीदा मुद्दा होता था कि कौन मास्टर या बहनजी मतलब पुरुष टीचर और स्त्री टीचर कितनी ट्यूशन पढ़ाकर कितने पैसे कमा रहा है और कौन सिफ़ारिश से अपनी बदली रुकवाकर दूसरे की करवा देता है और कौन हेडमास्टर या प्रिंसिपल का आदमी है और कौन नहीं।

ऐसे स्कूलों में बच्चों की बुरी तरह पिटाई होना एक बहुत ही ज़्यादा आम बात थी और लगभग सभी टीचर अपने जीवन में कुछ ख़ास ना कर पाने का नहीं बल्कि कुछ ख़ास ना कमा पाने का सारा गुस्सा बच्चों की पीठ, गालों, चूतड़ों और पेट पे निकालते थे और इन स्थान विशेषों की जम के पिटाई होती थी। 

एक टीचर जिसका एक हाथ सन्नी देओल के ढाई किलो के हाथ से भी ढाई गुना भारी था, वो अपने दोनों हाथों को पूरी ताक़त से बच्चे के दोनों गालों पे एक साथ मारता था। उसकी दस की दस उंगलियाँ हमारे गालों पर छप जाती थीं और हमें काफी देर तक अपने कानों में सीटी बजने की आवाज़ सुनाई देती रहती थी। 

एक और सींखीया टीचर, जिसकी एक-एक हड्डी दिखाई देती थी और जो देखने में सूखी लकड़ी जैसा लगता था, जब वो हमारी पिटाई करता था तो पता नहीं कहाँ से उसके अन्दर एक ग़ज़ब की शक्ति आ जाती थी। वो हमें गर्मियों की भरी धूप में और सर्दियों में ठंडी जगह पे मुर्गा बना के हमारी डबल-रोटी को कभी पतली और कभी मोटी छड़ी से सेका करता था। हम बच्चे उसकी क्लास में आते ही सबसे पहले उसके हाथ की छड़ी को देखते थे कि आज ये यमदूत हमें कितनी मोटाई वाली छड़ी से पीटेगा। और यकीन मानिए कि साली पतली छड़ी की जो मार होती थी, उसके सामने मोटी छड़ी हमें (हमारी डबल-रोटी को) फूल की टहनी जैसी लगती थी। 

एक और संस्कृत का टीचर था जोकि ट्यूशन ना मिल पाने की भयंकर कुंठा में अपना जीवन बिता रहा था। क्योंकि उन दिनों में छात्र हिंदी, सामाजिक अध्ययन, संस्कृत जैसे अन्य विषयों की ट्यूशन नहीं रखा करते थे तो ये ज़हरबुझा टीचर अपना सारा ज़हर बच्चों के गालों पे उतार के अपना जीवन धन्य करता था। ये स्कूल या स्कूल के बाहर, गली, मोहल्ले, बाज़ार में कहीं भी किसी भी छात्र को पकड़ लेता था और काफी देर तक उसके दोनों कानों को रेडियो-ट्यून करने की तर्ज़ पे बुरी तरह मरोड़ता था। साथ में बहुत ही कमीनी मुस्कान के साथ बिना मतलब के हमारा हाल-चाल पूछता रहता था और जाते समय अपने दोनों हाथों से हमारे दोनों गाल लाल कर देता था। 

इस सारी पिटाई का एक मुख्य उद्देश्य होता था कि बच्चे को तब तक पीटो, जब तक कि वो थक के उस टीचर से ट्यूशन ना पढ़ने लग जाए। जो बच्चा जिस टीचर से ट्यूशन पढने लग जाता था, उसको उस टीचर की क्लास में अभयदान मिल जाता था और वो बिना बात की अमानुषिक पिटाई से बच जाता था। अगर उसको कभी मार पड़ती भी तो वो काफी हल्के हाथ की मार होती थी जिसको हम छोटी उम्र, पर मोटी खाल वाले बच्चे मार नहीं मास्टर जी का प्यार मान के चलते थे! 

- to be continued...