January 30, 2012

मेरे सवालों का जवाब दो..दो ना - अश्वनी

क्या आपको पता है?
केवल कॉकरोच रहेंगे जिंदा..
जब सब होंगे मुर्दा..

पर उस वक़्त क्या जिंदा होगा सच?
या झूठ बोल रहे होंगे कॉकरोच भी?
उस वक़्त भाई,भाई का गला काटेगा??
या वो सीख जायेंगे भाईचारे से रहना?

उस वक़्त भी क्या रूपया होगा सबका बाप?
या कॉकरोच बेकाम की वस्तु समझ के नकार देंगे उसको?
क्या उस वक़्त हो रहे होंगे प्रोपर्टी के झगड़े? 
या कॉकरोच मिल के रह रहे होंगे एक ही भूखंड पे?
उस वक़्त क्या हो रही होगी इन्फिडेलिटी?
या कॉकरोच सीख जायेंगे मोनोगैमी?

क्या उस वक़्त तक कॉकरोच समझ चुके होंगे कि 
इंसान था अजीब प्राणी..
जो जिंदा था..लड़ता था..मरता था..और मर गया..
ज़र जोरू ज़मीन पे... 

जो बात कॉकरोच समझेंगे हमारे जाने के बाद..
हम वो बात जीते जी समझ लें?
मैं सवाल बहुत पूछने लगा हूँ आजकल..
मुझे माफ़ करना..
पर जब बरसों से जवाब ना मिलें हों तो बहुत से सवाल हो जाते हैं इकट्ठा..

January 29, 2012

सोच लो - अश्वनी

इतनी भीड़ इतने लोग इतने चेहरे इतने चरित्र 
भगवान के पास मिट्टी है अनंत..
पर ओवरटाइम करना पड़ रहा है उसको भी
दिन रात काम में जुट के भी सप्लाई पूरी करना हो रहा है मुश्किल..

डिमांड बढ़ती ही जा रही है..
सबसे ज़्यादा आर्डर इंडिया से आते हैं..
क्वांटिटी के चक्कर में क्वालिटी गिर रही है..
औसत दर्जे के भारतीय बनाने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं.. 
अव्वल दर्जे के लिए लगता है धैर्य और समय 
पर ना नीचे समय है लोगों के पास..
ना ऊपर उसके पास..

कई बार तो किसी विशेष तिथि को अचानक ओवरलोड हो जाता है कारखाना..
11.11.11 या 12.12.12 जैसी तिथियों पे पैदा होने के लिए नीचे मचती है होड़..
तमाम कुदरती गैर-कुदरती तरीकों से लाये जाते हैं नवजात दुनिया में..
उस दिन ऊपर पानी पीने की फुर्सत भी नहीं मिलती उसको..
उन दिनों में शायद वो हायर करता है थोड़े कम अनुभवी देवता..
जो जैसे तैसे गढ़ कर भेज देते हैं पुतले..

अबे इंसानों..
इतना ज़्यादा काम लोगे बेचारे से तो एक दिन सब्र का प्याला छलक जाएगा उसका..
उस दिन वो उठा के बहा देगा सारी मिट्टी..
तोड़ने लगेगा अपने बनाए मिट्टी के पुतले..

एक अफवाह भी गरम है कि दुनिया खत्म होने वाली है..
मैं डरा नहीं रहा,चेता रहा हूँ
सोच लो.. 

कुदरत - अश्वनी

बारिश में नहाए बहुत दिन हुए..
तन मन भिगोए बहुत दिन हुए..
सराबोर हो छींक मारे बहुत दिन हुए..
भीगे तन में चाय चुसके बहुत दिन हुए..
जबसे रहने लगी छतरी संग-संग..
बारिश का उड़ गया रंग.. 

आंधी देखे बहुत दिन हुए..
धूलम-धूल हुए बहुत दिन हुए..
नैचुरल पाउडर लगाए बहुत दिन हुए..
कपड़े झाड़े बहुत दिन हुए..
जब से चढ़ गया आँखों पे चश्मा..
आंधी का हुआ खात्मा..

जाड़ा पाला महसूसे बहुत दिन हुए..
हाथ जेबों में घुसाए बहुत दिन हुए..
आग तापे बहुत दिन हुए..
दांत किटकिटाये बहुत दिन हुए..
जब मोटी हो जाए खाल..
जाड़े का कहाँ सवाल..

बारिश आंधी जाड़ा लू हिमपात बसंत पतझड़ 
इनको देखने जानने सुनने महसूसने 
खुद को मिटाना होगा

अपने आप से नज़र हटेगी..
तभी तो कुदरत दिखेगी..

January 28, 2012

चलें?-अश्वनी

धुंध के पार..चलोगी मेरे साथ?
रोशनी पे सवार..चलोगी मेरे साथ?
मुश्किलें हैं तैयार..चलोगी मेरे साथ?
सह हर वार..चलोगी मेरे साथ?
पूँजी केवल प्यार..चलोगी मेरे साथ?
काँटों भरी बहार..चलोगी मेरे साथ?
न मोटर न कार..चलोगी मेरे साथ?
रोटी विद अचार..चलोगी मेरे साथ?
संघर्ष मेरा संसार..चलोगी मेरे साथ?
विजेता हो, अब सब हार...चलोगी मेरे साथ?

दिन गिनती के चार..चलो ना मेरे साथ..
मुझे करती तो हो प्यार..चलो ना मेरे साथ..
मुझे आता रोज़ बुखार..चलो ना मेरे साथ..
सीने पार कटार..चलो ना मेरे साथ..
गिरा दी हर दीवार..चलो ना मेरे साथ..
खूब करेंगे प्यार..चलो ना मेरे साथ..
दिल में बजी गिटार..चलो ना मेरे साथ..
ग़लती की स्वीकार..चलो ना मेरे साथ..
इन्तहा हुआ इंतज़ार..चलो ना मेरे साथ..
मान जाओ ना यार..चलो ना मेरे साथ.. 

जंगली- अश्वनी

मुझे जंगल देखे कई दिन हो गए
मैंने कई दिन से अपने भीतर नहीं झाँका
काई जम गयी है वर्षावन में
मेरे मन में...

एक वन-नदी तोड़ चुकी है सांस
सूखी पपड़ी सी पड़ी है मुर्दा
मछलियों के कंकाल मुकुट से सजे हैं पपड़ी पर
मेरी धमनियों का रक्त जम के हो चुका है काला
मेरी शिरायें सूखे नूडल सी लटक रही हैं
त्वचा से बाहर झाँक रही हैं नसें

कांटे उगे हैं जगह-जगह जंगल में
छील देते हैं जो
लील लेते हैं जो
मेरी जीभ रेगमार हो गयी है
जख्म देती है
घायल कर देती है
कभी तुझे, कभी मुझे

सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचता इस अरण्य में
इतना घना है ये
मेरी आत्मा को कोई छू नहीं पाया अभी तक

विषैले-वनैले जीव-जंतु भरे पड़े हैं इस कानन में
छेड़ते ही काट लेते हैं
मेरी हस्तरेखाओं में वध की पुष्टि हुई है

जंगल में आग लग गयी एक दिन अचानक
सारे वन-कानन पे कालिख पुत गई
अरण्य नगण्य हो गया
उस रात मेरे हाथ से कुछ लकीरें गायब हो गईं
मन हर्षित और वाणी मधुर हुई मेरी
मुझे कोई लगने लगा बेहद प्यारा
मैं उसी के साथ जंगल-सफ़ारी पे जाने वाला हूँ।

January 27, 2012

राजकुमारी की कविता-अश्वनी

कवितायें पढ़-सुन कर मेरी
एक देश की राजकुमारी हो गयी फ़िदा...
विवाह का आदेश आया सन्देश के रूप में..
ऑफर अच्छा था..
विवाह करने पे राजकुमारी के साथ राज-पाट भी मिलेगा..
P.T.O लिखा था सन्देश के कोने में..
पलट के देखा तो एक शर्त भी चस्पां थी..
शर्त थी कि मुझे हर रोज़ सुनानी होगी एक कविता राजकुमारी को..
सन्देश और शर्त दोनों आदेश थे..
सो मान लिए..
विवाह हुआ..कविताई भी शुरू हो गयी..
राज-पाट मिला..
सीधा-सादा सा मैं तीर सा तन गया..
सर झुके नौकर से अकड़फूं राजा बन गया..
जब सत्ता सर चढ़ने लगी तो कविता दिल से उतरने लगी..
एक कविता कहना एक समंदर लांघने जैसा हो गया..
इसी राजमद की भूल-भुलैयां में एक दिन मैं बिना कविता कहे सो गया..
सुबह मुझे ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया राजकुमारी ने..
अगले दिन से राजकुमारी कवितायें पढ़ने-सुनने लगी नए कवियों की
सुना है उसे एक नए कवि की कवितायें पसंद आने लगी हैं..
राजकुमारी के कारिंदे एक नयी दीवार के लिए ईंट-गारा जुटाने में लग गए हैं..

भूत-अश्वनी

हर तरह की यादों का एक वक़्त और दिन होता है..
आज मैं फुर्सत में हूँ
और मुझे अपने बचपन की
पुराने दोस्तों की
छूट गए छोटे से कस्बे की
उस छोटे से कस्बे में हमारे बड़े से घर की
यादें घेरे हुए हैं...

जब मैं भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में होता हूँ 
तब इस तरह की नॉस्टैल्जिक टाइप 
यादें मेरा साथ छोड़ देती हैं..
तब मुझे याद रहता है 
मिल्खा सिंह से भी तेज़ भागता समय
और सुरसा-सा मुंह फाड़े बचा ढेर काम...
भविष्य बेहतर करने में वर्तमान बर्बाद करना 
मैं कभी नहीं भूलता उस समयकाल में...

उस वक़्त मेरा मशीनीकरण हो चुका होता है...
मेरे पूरे जिस्म पे नट-बोल्ट उगे जाते हैं
और मेरा बॉस पेचकस हाथ में ले के 
कुटिल मुस्कान लुटाता है..
ज़रा सा भी ढ़ीला पड़ने पे 
वो मेरे पेच कस देता है..

उस वक़्त मुझे याद कराने पे भी याद नहीं आता कि
मैं कभी बच्चा भी था..
और मैं कहता पाया जाता हूँ 
कि मेरे कभी कोई दोस्त ही नहीं रहे

उस वक़्त मुझे यकीन होता है 
कि मैं जन्म से ही इस महानगर में हूँ..
और यह दड़बेनुमा घर ही मेरा घर है सदा से..

उस वक़्त अगर मुझे दुनिया के मानचित्र से मिटा दिया जाए
मतलब मेरी हत्या हो जाए 
या फिर स्वाभाविक मौत
तो
किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा..
सिर्फ़ मेरे बॉस को थोडा दुःख होगा 
समय की हानि होने का..
उसे एक दिन का अवकाश रखना पड़ेगा मजबूरी में..

किन्तु एक दिन बाद
कोई छोटे कस्बे के बड़े घर से आया 
लड़का
जिसके कई दोस्त हैं
और जो अभी भी बचपन, कस्बे
और दोस्तों को याद करता है...
मेरी जगह ले लेगा..

फिर मेरा बॉस उसको बताएगा
की उससे पहले उसकी जगह काम करने वाला
हमेशा खोया सा रहता था कुछ यादों में
इसलिए वो नहीं कर पाया
अपना काम सुचारू रूप से..
अगर ऊपरवाला उसको निकाल के न ले जाता
तो वो खुद ही उसे निकालने वाला था नौकरी से..
इसलिए बेटा...याद रखना..
यादों में मत खोना यहाँ..
दिल लगा के, नज़र झुका के काम करना..
उसके बाद तुम्हारा भविष्य सुरक्षित है..

जिस वक़्त मेरा बॉस 
मेरे जैसे एक छोटे कस्बे से आये 
नए लड़के को ज्ञान पिला रहा होगा..
उस वक़्त मैं भूत बनके 
अपने छोटे से कस्बे के बड़े से ख़ाली पड़े घर में 
अपने पुराने दोस्तों को याद करके भटक रहा होऊंगा...

January 25, 2012

हूम हूम दिल-अश्वनी

इस कविता में हैं
कुछ छोटी-छोटी कवितायें...
किसी का किसी से 
कोई सीधा सम्बन्ध नहीं..
सिवाए इसके कि...
यह सब मेरे दिल की आवाजें हैं..

प्रेम को रजाई सा ओढ़ा...
गर्माहट से भर गया अंतस..
रजाई ओढ़ के जीवन बिताना....
नामुमकिन है...

एक उधेड़बुन साथ है आत्मा के..
हर समय सालती..
यह उधेड़ बुन...
आत्मा को उधेड़ देती है...

अपनी बचपन की तस्वीर देख के...
अक्सर ये होता है..
खुद को आईने में देख के..
अच्छा नहीं लगता...

माँ ने अब तक
मेरे बचपन के कपड़े संभाल रखे हैं..
वो एक बार मेरे बच्चों को...
वो कपड़े पहने हुए देखना चाहती है..
क्या मैं भी संभाल के रखूंगा 
अपने बच्चे के बचपन के कपड़े?
पता नहीं क्यूँ...
पर मैं एक बार
माँ से लिपट के खूब रोना चाहता हूँ...

मेरे पिता 20 साल बूढ़े हो गए हैं पिछले 10 सालों में..
उनकी बूढ़ा होने की दर
दोगुना हो गयी अचानक...
पिता को अपनी आँखों के सामने 
अपने बच्चे को बढ़ता देखना भाता है..
पर बढ़ चुके बच्चे के लिए
पिता को बूढ़ा होते देखना विवशता है..
मैं एक बार अपने पिता को 
यह बोलना चाहता हूँ कि
मैं उन्हें बेहद प्यार करता हूँ...

मेरा भाई मेरा दोस्त है 

वो वैसा दोस्त है 
जो भाई जैसा होता है...
वो घुमक्कड़ है..
मैं उसके साथ
एक लम्बी यात्रा पे जाना चाहता हूँ...

जब पत्नी मेरे दुःख से दुखी
और मेरे सुख में सुखी होती है
तो अक्सर सोचता हूँ
कि यूँ ही अर्धांगिनी नहीं कहते उसको...
अर्धांग बनके वो...
करती है मुझे पूर्ण..
मैं उस से पहले या उसके साथ
इस दुनिया से जाना चाहता हूँ..
मुझसे पहले उसका जाना मैं नहीं देख पाऊंगा...
कसम से...

January 24, 2012

सपनों से भरे नैना..न नींद है न चैना-अश्वनी

अगर मैं अपने सपनों की रिकॉर्डिंग कर पाता..
तो मैं आज एक बहुत बड़ा कहानीकार..उपन्यासकार,कवि होता..
सपनों में इतनी कहानियाँ..इतनी कवितायें रचता हूँ कि सपने में मुस्कुराता रहता हूँ..
कभी-कभार कोई कहानी आ के रुला भी जाती है..कोई हंसा जाती है..कोई डरा जाती है..
पर कहीं न कहीं मुझे पता चल जाता है कि यह एक सपना है..
तो मैं मुस्कुराने लगता हूँ..
क्योंकि मुझे पता होता है कि मैं रच रहा हूँ कोई बड़ा साहित्य..
बस केवल एक रहस्य मैं नहीं जान पाता सपने का..
कि जो मैं रच रहा हूँ..यह सब एक जादुई स्याही से लिखा जा रहा है...
जो स्याही सुबह होते ही गायब हो जायेगी मेरी याद के पन्नों से..
ज्यादा सोचते रहने का नतीजा है यह सारा..
दिन भर सोचो और रात में सपने देखो..
पेट भर सपनों से भरी नींद साउंड स्लीप नहीं होती..
मेरे सपने मेरी नींद खा गए हैं पिछले कुछ सालों से..
मैं साहित्यकार तो नहीं ही बना..
हाँ..अनिद्रा का शिकार हो गया हूँ..
अब केवल एक तमन्ना है..
या तो सपने रिकॉर्ड होने लगें..

या सपने समाप्त हो जाएँ..
या मैं सोचना बंद कर दूं..
या....

January 22, 2012

मैंने खुद को देखा-अश्वनी

बंद कमरे में घुसा मैं घरघुसरा अँधेरे में भी देख लेता हूँ आजकल..
बाहर धूप और रोशनी है..इसका इल्म है मुझे..
कल्पना में मैं दरवाज़ा लांघ के बाहर पहुँचता हूँ..
धूप को अपनी मुट्ठी में कैद करता हूँ..
जब जब मैं ऐसा करता हूँ तो..
घर के भीतर मेरी हथेली पता नहीं क्यूँ गरम हो जाती है..
घर के भीतर मैं अकेला हूँ..
मैं घर के बाहर नहीं हूँ..
कल्पना एकमात्र पुल है मेरे और बाहर के बीच..
मैं भीतर बैठा अपने को बाहर देख रहा हूँ..
मैं एक भूखे भिखारी बूढ़े के पास खड़ा हूँ..
मैंने उसके हाथ में चार रोटियाँ और आलू गोभी की सूखी सब्ज़ी रखी..
शाम को खाना खाने रसोई गया तो चार रोटियाँ और आलू गोभी की सब्ज़ी गायब मिली...
भूखे आदमी को गुस्सा ज्यादा आता है..
मैं भूखा था और खूब गुस्से में था..
मुझे लगा कि मुझे खुद को खुद की कल्पना में देखना नहीं चाहिए था..
अगर वास्तविकता में होता तो मैं खुद भूखा रह के किसी दुसरे भूखे का पेट कतई नहीं भरता..
ज़्यादातर ऐसा ही है..हमारा काल्पनिक रूप हमारे वास्तविक रूप से अधिक सुंदर है..
काश यह सब एक कल्पना लोक होता..फिर ना मैं घर के भीतर घरघुसरा बनके पड़ा होता..
ना मुझे अभी गुस्सा आ रहा होता..ना मुझे अपनी भूख इतनी ज़्यादा परेशान करती..
और ना ही कहीं कोई बूढ़ा भूखा भिखारी होता..और ना ही मुझे यह सब लिखना पड़ता..

और यदि आप जो यह सब पढ़के हल्की सी सोच में पड़ गए हैं शायद..
वो क्यूँ पड़ते भला...

January 20, 2012

क्यूँ से शुरू होते सवाल-अश्वनी

इतनी कशमकश..इतनी कसमसाहट..इतनी बेचैनी..इतना शोर..इतनी व्याकुलता..
क्यूँ कोई चैन सुकून आराम ख़ामोशी का दरवाज़ा नहीं खुलता?
क्यूँ धुकधुकी सी सीने में..क्यूँ रोज़ एक मरण रोज़ के जीने में?
क्यूँ चाह इतनी बढ़ी कि खुद छोटे नज़र आने लगे हम?
क्यूँ प्यास इतनी ज़्यादा कि सागर भी लगे कम?
क्यूँ पैर इतने बड़े कि हर चादर लगे छोटी?
क्यूँ स्वाद इतना सरचढ़ा  कि बेस्वाद लगे रोटी?
क्यूँ सीढ़ियों के चढ़ने में ज़िन्दगी उतरे जा रही कब्र में?
क्यूँ बेसब्री सबब बनी जीने का..क्यूँ मज़ा आता नहीं सब्र में?
क्यूँ प्रतिस्पर्धा घुल गयी खून में?
क्यूँ सर घूमता रहता व्यर्थ के जूनून में?
सबके अपने अपने सवाल हैं..सबके अपने अपने क्यूँ हैं..
मेरे भी बहुत से क्यूँ बचे हैं बाकी..
पर अभी इतने सारे क्यूँ से भरे सवाल पूछ कर मैं उदास हो गया हूँ..
मैं चला सोने..

January 17, 2012

चल कहीं दूर निकल जाएँ-अश्वनी

प्यार पर इतना लिखा-कहा-सुना जा चुका है...
अब मैं और क्या लिखूं ?
रिश्तों पर इतना देखा-सुना-पढ़ा है..
अब मैं और क्या कहूं?
भावनायों-जज्बातों की बातों का तो कहना ही क्या..
स्वेटर की तरह,एक सिरा पकड़ो तो पूरे के पूरे उधड़े नज़र आये हैं हमेशा..
मैं कौन से नए जज्बातों की करूं बात??
राजनीति,देश,गरीबी,शोषण,भ्रष्टाचार पे लिखने वाले हैं हज़ार..
मैं क्यूँ उनकी भेड़-भीड़ में हो जाऊं शामिल??
धर्म-कर्म,माया-मोह,लोभ-लालच,क्षोभ-कुंठा,पिपासा-वासना पे कह-कह के लोग थक ही नहीं रहे हैं..
और मैं इन पर लिखने के विचार से ही थक जाता हूँ..
जीवन-मरण,भगवान-शैतान,अच्छा-बुरा,खरा-खोटा,सच्चा -झूठा..
इसपे तो कोई भी कह लेता है आजकल..
मैं इसपे लिख के अतिसाधारण लोगों में क्यूँ लिखवाऊं अपना नाम?
यादें-वादे-इरादे,महबूब की बातें भी हो चुकी हैं खूब..
बड़े बड़े शायर कह गए हैं जो कहा जाना चाहिए था..
और जो कहने लायक था..
मैं अब निम्नस्तरीय लिख के उनके लिखे हुए को क्यूँ करूं शर्मिंदा?
इस धरती पर जो कुछ भी लिखे,कहे,सोचे जाने लायक था..वो हो चुका..
नए विषयो..नए विचारों,नए मुद्दों की तलाश में खोजने पड़ेंगे कुछ नए ग्रह..
या जाना पड़ेगा दूसरी दुनिया में..
जिसे स्वर्ग-नरक..जन्नत-जहन्नुम के नाम से मशहूर कर दिया है कुछ चतुर लोगों ने..
अब तो चिता पे लेट के कुछ नया सोचूंगा या फिर कब्र में उतर कर..

January 14, 2012

सुख की कविता-अश्वनी

मैं सुख की कविता लिखना चाहता हूँ..
आज तक नहीं पढ़ी कोई ऐसी कविता जिसमें सुख ही सुख हो..
हर कोई हो प्रसन्न..ख़ुशी से शुरू हो और ख़ुशी पे ख़तम हो जाए..
तेरे नाम से शुरू..तेरे नाम पे ख़तम टाइप्स...
पर जब ख़ुशी-ख़ुशी लिखने बैठा ख़ुशी और सुख पर कविता..
तो कविता अदृश्य हो गयी और एक गाना मेरे सर पे नाचने लगा..
मेरे पन्नों पे अब एक गीत लिखा है..
मैं अब भी एक सुख की कविता लिखना और पढ़ना चाहता हूँ..
ख़ुशी से शुरू..ख़ुशी पे ख़तम टाइप्स..

January 2, 2012

पुराना माल-अश्वनी

वही दोस्त,वही दोस्तियाँ..
वही मुश्किलें,वही कमजोरियां..
वही उलझाने,वही वादे,वही इरादे..
वही लालसाएं,वही इच्छाएं..
वही डर,वही संकोच,वही आशाएं,वही निराशाएं...
वही आप,वही मैं...
सालोंसाल से यह सालों का चक्र घूम रहा है..
सब कह रहे हैं की नया साल है..
मैं कहता हूँ नयी खाल पहन के यह वही पुराना माल है..