December 23, 2011

खुद की गर्मी से पिघला नज़रिया-अश्वनी

कई दिन से बुखार नहीं उतर रहा..
और मैं दार्शनिक होता जा रहा हूँ..
ये दर्शन स्वस्थ होने पर पास नहीं फटकता..
एक शेर रह रह के याद आता है इन दिनों..
इस सफ़र के वास्ते, इक रोग तू भी पाल ले..
सिर्फ सेहत के सहारे ज़िन्दगी कटती नहीं..
पर मेरे केस में उल्टा है..मैंने रोग को नहीं पाला
रोग ने मुझे पाल लिया है..
उंगलियाँ थर्मामीटर हो चुकी हैं..
खुद का ताप बता देती हैं खुद को छूते ही..
आँख मिचोली खेलता है बदन मेरा तापमान के साथ..
शांत रहने में मज़ा आता है..
दुनिया के लिए जो ज्वलंत मुद्दे हैं...
मेरे लिए बुझे कोयले हैं आजकल..
कोई अनशन पे बैट्ठे..
मेरे ठेंगे पे...
कोई संसद में चिल्लाए...
मेरे ठेंगे पे..
कोई काला धन वापिस लाये ना लाये..
मेरे ठेंगे पे..
एक बात तो है..जैसा भी है..जो भी है..
ये अवस्था अच्छी ही है...
खुद का बदन गरम हो तो गरम मुद्दे भी ठन्डे नज़र आते हैं..
आप क्या कहते हैं??

December 11, 2011

गाली-अश्वनी

रुका था तो चलने को तरसता था..
चला हूँ तो रुकने को तरसता हूँ...
क्यूँ सब कुछ सही अनुपात में नहीं मिलता साला...
भूखे थे तो खाने को तरसते थे..
इफरात में मिला तो भूख ही मर गयी साली..
ठण्ड में एक कपडे को तरसते थे..
गर्मी में रज़ाई ओढ़ा गए लोग साले..
एक बूँद पानी को तरसा दिया था कभी..
अभी नाक से पानी धकेल रहे हैं साले..
गाली देने का कभी शौक नहीं था मेरा कविता में..
पर आप ही बताइए..
ऐसी बीते किसी के साथ तो गाली न निकलेगी मुंह से साला..

October 30, 2011

शायद...अश्वनी

खाया पीया नाचा बहका..
चीखा चिल्लाया चम्भला चहका..
सुना सोचा सीखा दहका..
मना रूठा सोया महका..
पाया लिया दिया लहका..
क्यूँ बहका?
क्यूँ चहका?
क्यूँ दहका?
क्यूँ  महका?
क्यूँ लहका?
बिना वजह..
बेमकसद..
जैसा खिलाया..वैसा खेला..
जैसा रखा..वैसा रहा....
जैसा जिलाया वैसा जिया..
जब हाथ में मेरे कुछ भी ना था तो हाथ में मेरे लकीरें क्यूँ बनाई..
क्यूँ कहा तू ऐसा करेगा...वैसा करेगा..
कर कोई और रहा है..और भर कोई और रहा है...
सब के साथ ऐसा ही होता है..
शायद...

April 10, 2011

धारावाहिक - अश्वनी

ज़िन्दगी रोज़ाना टेलीकास्ट होने वाला चौबीस घंटे का धारावाहिक है 
यह टेलीकास्ट मेरे दिलो-दिमाग की स्क्रीन पे होता है
कभी कभार ही  कुछ एपिसोड्स देखने लायक होते हैं 
वरना..अक्सर वही घिसा पिटा 
हर वक़्त ये प्रयत्न के कुछ हो ऐसा
कि 
यह धारावाहिक बन सके देखने लायक
परन्तु
प्रयत्न..प्रतीक्षा का मज़ा ले लेता है 
ज़िन्दगी के इस डेली सोप में हाथ पे हाथ धर 
आराम कुर्सी पर बैठ  पोपकोर्न खाते हुए 
इस धारावाहिक की कड़ियाँ देखना ख़ास बुरा नहीं 
बशर्ते यदि आप अच्छे अभिनेता हैं
और 
खुद को मुख्य भूमिका में देख के बोर नहीं होते 
तो 
ये सारा जहान मंच है आपका
उछलिए कूदिये ठहाके लगाइए 
और सोच के खुश रहिए की आप निर्देशक भी हैं इसके
पर मेरा यह भ्रम खंडित है 
मैं ये स्वीकार करके जीता हूँ कि
एक कठपुतला हूँ मैं
किसी की उँगलियों में बंधी डोर से संचालित 
निर्देशक कई और हैं मेरे 
और वो सब मुझसे नाराज़ रहते हैं
क्योंकि मैं ज़िन्दगी के इस धारावाहिक में अच्छा अभिनय भी नहीं कर पाता..