November 28, 2009

मुहावरे-अश्वनी

बेकार चीज़ फेंक देना होता है सही...
ऐसा सुनते आए अब तक...
पर जब शब्द अर्थ खोने लगें तो क्या करें ...
ज़ाहिर है फेंक दो उन्हें अंधी खाई में...
ऐसे कुछ शब्दों से बने मुहावरे खो चुके हैं अर्थ...
पर कुछ लकीर के फकीर करते हैं उनका उपयोग गाहे-बगाहे...
उदाहरणार्थ वो कहते हैं 
झूठ के पाँव नहीं होते...
पर अक़्सर नज़र आते  हैं कई झूठ, कई तरह की दौड़ों में अव्वल आते हुए..
सांच को आंच नहीं...
पर सच जला-बुझा सा कोने में पड़ा मिलता है अदालतों में...
भगवान के घर देर है...अंधेर नहीं..
पर भगवान ख़ुद अमीरों की इमारतों में उजाला करने में है व्यस्त
सौ सुनार की, एक लोहार की...
पर आज के बाज़ार ने लोहार को गायब कर दिया बाज़ार से...
न नौ मन तेल होगा...न राधा नाचेगी..
पर राधा मीरा नाच रहीं चवन्नी-अठन्नी पर किसी सस्ते बार में...
चैन की नींद सोना...
पर मेरे बूढ़े पिता रिटायर होने के बाद जागते हैं उल्लुओं की तरह... 
अनिष्ट की आशंका में...
ये मुहावरे मिटा डालो 
फाड़ो वो पन्ने जो इनका बोझ ढो के बोझिल हो चुके.. 
निष्कासित करो उन लकीरी फकीरों को..
जो इनके सच होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं...

November 22, 2009

दुविधा-अश्वनी

काफ़ी देर तक कलम लिए हाथ में रहा बैठा
लिख ना पाया अक्षर एक
इतने सारे विचारों में से लिखने लायक विचार ढूँढना होता है मुश्किल
पर कभी होता है आसान बहुत
ज़िद करके कलम उतार दी कागज़ की ज़मीन पर
जब उठाई कलम तो कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं के इलावा कुछ न था
लेखक से चित्रकार भला
उसे सुविधा है की वो आड़ी तिरछी रेखाओं से होते हुए पहुँच जाता है वहां
जहाँ लेखक को पहुंचना होता है केवल शब्दों के पुल पर
पता नहीं मेरी यह बात आपको कितनी ठीक लगेगी
पर मेरे दिल में आई और मैंने कह दी
वैसे भी आज लिखना बहुत मुश्किल लग रहा है
हाँ बातें करने का बहुत मन है
किसी के साथ

November 19, 2009

यूँही ही-अश्वनी

इतने लोग ...
इतनी बातें...
इतनी जिंदगानियां॥
इतनी सोचें...
इतने किस्से...
इतनी कहानियाँ॥
जितने लोग
उतनी बातें
उतनी सोचें
उतने ही किस्से
उतनी कहानियाँ
चल ढूंढे आज कहीं थोड़ी जिन्दगानियां भी॥